
सतगुरू नाम अनूपका, बाडा अहै परताप।
जिनकी कृपा कटाक्षते अजपा आपुहिं आप।।
एक बार शीतकालीन पूर्णिमा का पर्व चल रहा था भक्तों एवं श्रद्धालुओं का विशाल जन समुह पवित्र पर्व में भाग लेने एंव समर्थ के दर्शनार्थ पूरवाधाम मे आये हुए थे संध्याश के समय धूनी के पास साहब अनूप दास जी भक्तों के साथ बैठे हुए थे स्त्री पुरूष बाल वृद्ध सभी समर्थ साहब का दर्शन एंव सतसंग का आनंद ले रहे थे। भक्तो का आना जाना जारी था मौसम खराब होने की वजह से ठंण्डव भी काफी जोर की थी। अत: कुछ भक्तन घूनी के पास बैठे ताप रहे थे समर्थ साहब अनूपदास जी वही घूनी के पास लेट गये साहब जब लेटे तो उनके दोनों हाथ अलग अलग दिशा मे फैल गये थे समर्थ साहब अनूपदास जी का एक हाथ जलती हुयी धूनी के बीचों बीच अग्नि के उपर था। और दूसरा हाथ पास मे ही बैठी हुयी स्त्री के स्तबन पर टिक गया था। वहा पर उपस्थि त भक्तभ विस्मित हथप्रभ निगाहों से समर्थ साहब अनूप दास जी की लीला को बस देखे जा रहे थे। कुछ लोगो का समझ नही आ रहा था की आखिर समर्थ साहब की ये कौन सी लीला है। समर्थ साहब का हाथ स्त्री के स्त न पर देखते ही उनकी भवना और सोच दोना ही भ्रमित कर देती लेकीन अगले ही क्षण जब दूसरी तरफ देखते की सरकार का दूसरा हाथ जलती हुइ धूनी के बीच रखा हुआ है। लेकीन अग्नि उनको छू तक नही पा रही है तो उनका भ्रम क्षण भर मे ही अपने आप नष्ट हो जाता की जिसके शरीर को साक्षात अग्नि स्प र्श तक नही कर पा रही है। तो भला कामाग्नि की क्यात मजाल जो ऐसे महान सन्तग को छू भी सके। एसी तमाम अध्याोत्मिक कथाओं से सदा से प्रमाणित होता आया है की सारी शक्तियों एंव सिद्धियां भक्ति में ही निहीत है।
ईश्विर का प्रमाण
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