समर्थ साहब देवी दास साहब की भक्ति अद्वितिय थी। समर्थ देवी दास साहब की गुरू भक्ति और गुरू के प्रति निष्ठाा और प्रेम सर्व विदित है। समर्थ साहब ने जीवन पर्यन्तथ अजपा जाप का सुमिरन करते हुए अपने सदगुरू समर्थ स्वा्मी जगजीवन साई द्वारा संस्थाापित एवं उपदेशित पंथ चलकर सदा सर्वधर्म समभाव और वसुधैव कुटुम्बाकम की भावना से अनगिनत लोंगों का उदधार किया। समस्तस संसार मे केवल पिता ओर सदगुरू दो ही ऐसी महान सोच रखते हैं कि मेरा पुत्र और शिष्यं सन्माार्ग पर चलते हुए मुझसे भी बडी उपलब्धि प्राप्त करे। ऐसे ही एकबार समर्थ साहब देवी दास साहब ने मन में विचार किया की समर्थ सदगुरू श्री जगजीवन साई की कृपा से मुझे सदगुरू चरण सेवा ओर इश्विर भक्ति का वरदान मिला है इसीमें संसार की समस्तच शक्तियॉ निहित है तथा सदा रिद्धी सिद्धी मुनुष्यक की भक्ति भाव के फलस्वुरूप उसे प्राप्तॉ होती है। अत: यदि यही भक्ति भाव अखण्डु रूप से सदगुरू कृपा से हमारी बंश परम्पपरा बनकर हमारी आगे आने वाली पीढी दर पीढी के लोंगो के जीवन का मूल आधार और उद्देश्य बनी रहे तो आगे भी लोक कल्या ण होता रहेगा। ऐसा विचार कर समर्थ साहब देवीदास साहब ने अपने चारों पुत्रों में सबसे बडे पुत्र श्री नीलाम्बकर दास साहब जी को बुलाकर कहा कि हे पुत्र मेरी इच्छाो है कि तुम मुझसे कोइ भी एक मनोवाछिंत वरदान मांगलो तो श्री नीलाम्बेर दास साहब ने कहा पिताजी मुझे तो सम्पाति का वरदान दीजिए समर्थ साहब देवीदास साहब जी ने तथास्तुस कहकर उन्हेंु भेज दिया फिर दूसरे पुत्र श्री समर्थ साहब रामनेवाज दास को बुलाया और वरदान मॉगने को कहा तो उन्होेने कहा पिताजी मुझे परिवार से बहुत प्रेम है आप मुझे ऐसा वरदान दीजिए कि मेरे सामने कोई भी परिवार से मेरे परिवार से बडा न हो ना ही टिक सके फिर समर्थ साहब ने अपने इस पुत्र को भी मनवॉछित वरदान देकर भेज दिया फिर तीसरे पुत्र को बुलाकर वरदान मॉगने के लिए कहा तो उन्होंदने कहा पिताजी आप मुझे धनधान्य का ऐसा वरदान दीजिए कि बडे बडे राजा महाराजा के पास भी उतना धन न हो समर्थ साहब ने तथास्तुन कहकर उनकी भी मनो कामना पूरी कर दिया तब आपने अपने चौथे पुत्र श्री अनूपदास जी को भेजने के लिए कहा जब तीसरा पुत्र वरदान लेकर चला गया तो समर्थ साहब देवीदास जी ने सोचा कि ये तीनों पुत्रों ने वरदान तो मांग लिया जो मुख्य अनमोल वर था वह तो किसी ने मांगा ही नही, अब एक पुत्र ही वरदान मागने के लिए शेष है अगर उन्हों ने भी मूल अविनाशी वस्तु् को न मांगकर ऐसी ही नस्वार वरदान मांग लिए तो आने वाले बंश परम्पिरा में भक्ति और ज्ञान का दीपक कैसे मिलेगा। तभी समर्थ सहब देवीदास साहब के चौथे पुत्र श्री अनूपदास जी अपने पिताजी के सामने हाथ जोडकर बडे ही विनीत भाव से उपस्थित हुए। समर्थ साहब देवीदासजी बडी देर तक उन्हें देखते रहे लेकिन वरदान मांगने कि लिए नहीं कहा। और अनूप दासजी हाथ जोडे हुए पिताजी देवीदास साहब के श्री चरणों में ध्यापन लगाए खडे थे अन्तीत: समर्थ साहब देवीदास साहब ने बडे ही भक्ति भाव से एक चौपाई का पहला चरण पढा जो नीचे वर्जित है। समर्थ साहब ने कहा
‘’तीन लोक का सिरजन हारा’’ इतना कहकर चुप हो गये तभी अनूपदास साहब ने उपरोक्त चौपाई को पूरा करते हुए कहा।
‘ताकी शरण में पिता हमारा’ समर्थ साहब देवीदास साहेब ने समर्थ साहेब श्री अनूपदास जी के भक्ति भाव से पूर्ण उत्तार सुनकर अति प्रसन्ना हुए। आनन्दाेतिरेक से समर्थ साहब देवीदास साहब के नेत्र सजल हो उठे। समर्थ साहब देवीदास साहब ने समर्थ श्री अनूप साहब को अपनी विशाल बाहों मे भरकर हृदय से लगा लिया। यहा पर एक विशेष बात का उल्ले ख करना अति आवश्यमक है और वो यह कि समर्थ साहब देवी दास जी अजानु बाहु थे । यानि कि समर्थ साहब देवीदास जी जब खडे होकर अपने हाथ नीचे की तरफ को लम्बा करते थे तो वे पैर के घुटनों से भी निचे तक आ जाते थे। इसीलिए उपर की पक्तियों मे विशाल बाहु शब्दव का प्रयोग किया गया है। और फिर बडी देर तक समर्थसाहब देवीदास साहब समर्थ साहब श्री अनूप दास साहब को अपने हृदय लगाये रखे और अनूप दास साहब को तो मानो सारे संसार की खुशिया एक ही पल में एक साथ प्राप्त हो गयी थी। उनके आनन्दश की कोई सीमा न थी वे तो बस यही कह रहे थे कि पिता श्री उन्हेह इसी तरह हृदय से लगाए रहे कभी अपने से अलग न करे समर्थ साहब अनूप दास जी ने पूरी तरह से खुद को अपने को सिद्ध संतपुरूष पिता को समर्पित कर चुके थे। काफी देर बाद समर्थ साहब देवीदास साहब ने अनूप दास साहब से कहा पूत्र जो भी वरदान मांगना चाहो मांगलो तुम्हासरी मनोकामना अवश्या पूरी होगी तब समर्थ साहब अनूपदास जी ने कहा कि हे पिताजी यदि आप मुझ पर प्रसन्नम हैं तो कृपा करके मुझे अखण्डस भक्ति का वरदान दीजिए। समर्थ साहब देवीदास साहब जी ने प्रसन्नक होकर कहा, तथास्तुज और साथ मे ये भी कहा (वरदान दिया) कि आपकी भक्ति आपके बंशानुक्रम मे पीढी दर पीढी कायम रहेगी। समर्थ साहब देवीदास साहब के वरदान के फलस्वमरूप पुरवाधाम मे आज भी भक्ति और ज्ञान की गंगा बहती है।
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