卍 ऊँ देवीदास जू नमो नमः श्री सांवले नमो नमः| पुरवा अधिपति नमो नमः जय देवी दास जू नमो नमः|| 卍

Friday, March 15, 2019

कीर्ति गाथा 7

          श्री समर्थ जगजीवन स्वा मी जी का दुबारा अवतरित होना एवं अपने शिष्यम समर्थ साहब देवीदास जी से दीक्षा ग्रहण करना ।
एक बार समर्थ स्वा्मी जगजीवन साहब श्री कोटवाधाम में विराजमान थे। और उनके परमप्रिय शिष्या समर्थ साहेब देवी दास जी समर्थ सदगुरू जगजीवन साहब के श्री चरणों मे ध्यायन लगाए आनन्दह मगन बैठे हुए थे। तभी समर्थ स्वाबमी जगजीवन साहब ने देवीदास जी से बडे ही स्नेआहि‍ल भाव से कहा। सॉवले आपकी भक्ति और गुरू चरणों में आपका अनुराग सदा ही बंदनीय एवं अतुल्य  है, कभी कभी मेरे मन में इच्छां होती है कि आप हमारे सतगुरू होते और मैं आपका शिष्यव बनकर आपसे शिक्षा दीक्षा ग्रहण करता।

अपने सद्गुरू के श्री मुख से एसी वाणी सुनकर देवीदास जी अवाक् रह गये, नेत्रों से अस्रुधारा प्रवाहित हो चली उन्हे  कदाचित अपने अर्न्तलमन की वेदना असहनीय लगने लगी। स्वापमी के चरणों को पकडकर रोने लगे और कहा प्रभू आप ये क्याल कह रहें हैं। मैं आपका दास भर हॅू मुझे अपने श्री चरणों में रहने दीजिए। स्वा्मी जी ने कहा देवी दास तुम सदा ही हमारे हृदय में हो। जि‍स तरह भक्तं के हृदय में भगवान हमेशा विद्यमान रहते है उसी प्रकार भगवान भी अपने भक्तोद की याद हमेशा अपने मन में बसाए रहते है। तभी तो भक्तर और भगवान एकाकार हो पाते हैं ओर जो इच्छां मैंने तुम्हाभरे सामने प्रकट की है वह अटल है तथा ऐसा अवसर आने पर अवश्य् होगा और स्वाुमी जी ने नाना भॉति से समझा बुझाकर शान्तआ कराया। समय बीतता गया और एक दिन वह भी आया जब समर्थ स्वाझमी जगजीवन साहेब समाधिस्थ  होकर ब्रहमलीन हो गये। कालान्तयर में जब समर्थ साहेब जलाली दास जी जो कि स्वासमी जी के पुत्र थे गृहस्थााश्रम में प्रवेश किये और एक दिन वह शुभ घडी भी आ गयी जब समर्थ स्वाेमी जगजीवन साहेब अपने भक्तम देवीदास जी को दिया हुआ वचन पूरा करने के लिए अपने पुत्र श्री जलालीदासजी के लडकेके रूप में पुन: पृथ्वीे पर अवतार लिए। जो आगे चलकर समर्थ साहब गिरवर दास के नाम से प्रसिद्ध हुए तथा सत्य‍नाम सम्प्र।दाय के महानसन्तब के रूप में समस्ते धर्मावलम्बियों को एकता के सूत्र में बांधकर उन्हेो सत्यह का मार्ग दिखाया । बात उस समय की है जब समर्थ साहेब गिरवरदास जी किशोरावस्थार में थे तभी उन्हों ने पुरवाधाम जाकर समरथ साहब देवीदास जी से दीक्षा लेकर आने जगजीवन अवतार मे देवीदास साहब को दिए हुए वचन को पुरा करने की सोची और कोटवाधाम से पुरवाधाम के लिए चल दिए। पुरवाधाम पहॅुच कर देखा कि समर्थ साहब देवीदास साहब आसन पर विराजमान हैं और वहॉ पर उपस्थित भक्तोंस को सत्य नाम की महिमा का अमृतपान करा रहे हैं गिरवर दास जी ने सोचा बडा ही उचित सवं शुभ अवसर है। ऐसा सोचकर ऐसी लीला की कि कोई उनको पहचान ही न सका और वे भक्तोंह के बीच समर्थ साहब देवीदास जी के सम्मुनख सास्टांाग प्रणाम करके बैठ गये और देवी दास साहब से हाथ जोडकर कहा प्रभु हमें भी अपनी शरण में रख लीजिए। मुझे मन्त्र  दीक्षा देकर अपने शिष्यप के रूपमें स्वी‍कार करने की कृपा करें। प्रभू की लीला प्रभू ही जाने सो थोडी देर के लिए समर्थ साहब देवीदास साहब भी श्री गिरवरदास जी को पहचान नहीं पाये। जब साहब देवीदास साहब ने श्री गिरवर दास जी के हाथ में धागा बांधकर मूलमन्त्रह की दीक्षा गिरवर साहब को देकर अपने शिष्यज के रूप में स्वीककार लिया तो गिरवर दास साहब खुशी से झूम उठे और पुन: अपने सदगुरू समर्थ देवी दास जी की चरण बन्दवना (बन्द गी) करके जब अपना सिर उपर उठाया और एक दूसरे को देखें तो जन्मों  जन्मोंस के प्रेमीभक्ती और भगवान दोनों एक दूसरे को तुरन्त  पहचान गये। देवीदास साहब तुरन्त( आसन से उतरकर हाथ जोडकर सजल नेत्र के साथ गिरवरदास साहब को प्रणाम किये और बोले। प्रभू यह आपने क्यार किया । मैं तो जन्मण जन्मालतर से आपका दास हॅू और आपका स्मररण और भक्ति मेरा परम शौभाग्य  है प्रभु समर्थ साहब गिरवरदास जी ने समर्थ साहब देवी दास जी से कहा सरकारयह पिछले जन्म्का वादा था जो आज शौभाग्यथ से पूरा हुआ है। आगे नीचे वर्णित पंक्तिया इस बात का प्रमाण हैं कि एक सच्चा् सदगुरू ही अपने शिष्यग को अपनी ही भॉति सर्व समर्थ बना सकते हैं अन्यन किसी में ऐसी सामर्थ्य  नहीं होती। गुरू और शिष्यॉ का सम्बबन्धं संसारमें अनुपम और अलौकिक है। और सच्चेर सदगुरू हमेशा यही कहतें हैं कि अगर शिष्यक की भक्ति उसका प्रेम अखण्ड् और अतुल्यम है तो उससे स्व यं गुरू को शिक्षा ग्रहण कर लेना चाहिए।

पद: मान हतन के हेतु पलटि जगजीवन स्वा मी।
निज सुतके सुव भए गिरवर धननामी।।
समरथ देवीदास भयहु चेला तिनकेरे।
दिहयो सबहिं उपदेश होहु चेरन के चेरे।।

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