साहब सहॉय जी द्वरा रायबरेली के श्रीवास्त व जी को सई नदी में कूदकर आत्मेहत्यास करने से बचाना और उनकी लडकी की शादी भारतीय रेल सेवा में कार्यरत टी टी ई के लडके से होना :-
रायबरेली जिले के श्रीवास्त व जी की माली हालत बहुत ही खराब थी कभी कभी तो स्थिति ऐसी बन जाती कि घर खाने को भी दिक्क त हो जाती। श्री वास्तसव जी का विश्वा स पुरवाधाम के प्रति अटूट था लेकिन यह भी सत्य है कि जो ईश्व्र के सच्चे भक्तव होते हैं ईश्व र उनकी परीक्षा भी उतनी ही कठिन लेते हैं श्रीवास्त व जी अपनी गरीबी के दिनों को कभी भी अपनी ईमानदारी मेहनत और पुरवाधाम की आस्थाे पर कभी भी भारी नही पडने देते थे । उन्हेव जब भी समय मिलता पुरवा दरबार दर्शन करने आते साहब और दरबार की सेवा करते श्रीवास्तव जी की चिन्ताप थी उनकी लडकी जो कि शादी के योग्यर हो गयी थी परन्तुर शादी कर पाने की स्थिति में न थे। धीरे धीरे श्रीवास्तेव जी का स्वागस्थु भी लडकी की शादी की चिन्ताे के कारण बिगडने लगी तो उनकी धर्म पत्नीय ने कहा कि आप साहब से क्यूथ नही कहते हो सकता है साहब की नजर में कही कोई लडका हो उनकी बहुत जान पहचान है, तमाम भक्तो है साहब चाहेंगे तो अवश्यक कहीं शादी करा देगें। तब श्री वास्ततव जी ने कहा कि साहब से कह तो दू लेकिन अपने पास कुछ तो व्यदवस्थाप होनी चाहिए। ऐसे ही काफी समय बीत गया श्रीवास्तेव जी की उदासी दिन प्रतिदिन बढती ही गयी कहीं कोई रास्तास नजर नही आ रहा था अत: श्रीवास्तिव जी ने एक दिन अपने मन ही मन में एक बहुत कठोर निर्णय कर बैठे। उन्हो ने अपने मन मे सोचा इस माघ सप्तीमी में समर्थ स्वाममी जगजीवन साहब के जन्मोोत्सअव में जाकर दर्शन कर ऑऊ फिर वापस आकर सई नदी में कूदकर अपनी जान दे दॅूगा। मेरे मरने के बाद मेरे परिवार का जो होना होगा वह कम से कम मैं तो न देखॅूगा। अब मेरे पास इसके आलावा कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं है। ऐसा सोचकर श्रीवास्ताव जी पुरवाधाम साहब का दर्शन किया प्रसाद ग्रहण किया दूसरे दिन समर्थ साहब सहॉय दासजी कोटवाधाम दर्शन के लिए जाने लगे तो श्रीवास्तगव जी से कहा कि चलो तुम भी कोटवाधाम दर्शन कर आओ, श्रीवास्तगव जी ने सोचा चलो अन्तिम बार कोटवाधीश के दर्शन कर ही लू क्यों कि दुबारा तो मैं जा न सकॅूगा। अत: साहब के साथ कोटवाधाम गये दर्शन किया। समर्थ साहब सहॉय दास जी सब लोंगो के साथ कोटवाधाम में ही बनी पुरवाधाम की धर्मशाला में आ गये। सब लोग भजन कीर्तन कर रहे थे किन्तुी श्रीवास्तशव जी के मन में व्यकथा और व्यालकुलता इतनी ज्याकदा थी कि उन्हेे वहॉ रूकना मुश्किल हो रहा था। अत: साहबसे आज्ञा लेकर चल दिये। सई नदी के किनारे पहॅुचे तो साहब का दिया हुआ प्रसाद था उसमें थोडा खाया और माथे लगाकर सई नदी के पुल पर एक तरफ रखकर। इधर उधर देखा दूर तक कोई दिख नही रहा था। बस पुल की रेलिंग पर चढ गये और ऑख बन्दर कर जैसे ही नदी में छलॉंग लगाई तुरंत समर्थ साहब सहॉय दास जी ने पीछे से उनको पकडकर ऊपर खींच लिया । श्रीवास्त्व जी ने जब ऑख खोल के देखा तो सामने साहब खडे थे। श्रीवास्त्व जी साहब के चरणों में गिर गये और फूट फूट कर रोने लगे और कहा कि साहब मुझे मर जाने दीजिए मैं जीना नही चाहता हॅू। समर्थ साहब ने उनको समझा कर बोले तुम सोचते हो कि तुम्हा रे मरने से सब ठीक हो जाएगा। तुम्हाारी लडकी की शादी हो जाएगी, तुम्हानरे परिवार की परेशानी खत्मर हो जाएगी तो ऐसे बिल्कुाल नहीं होगा बल्कि परेशानी और बढ जाएगी। श्रीवास्ततव जी ने कहा कि फिर में क्याि करू साहब मुझे तो कुछ भी दूसरी राह नहीं दिखती साहब ने उन्हेत अपनी जेब से एक रूपया निकालकर दिया और कहा कि तुम रेलवे स्टेहशन पर जाओ और जो भी पहली गाडी मिले उस पर चढ जाना किन्तु इस रूपये का टिकट भी मत लेना बिना टिकट ही बैठ जाना बाकी सब बडे बाबा ठीककर देंगें। श्रीवास्त व जी साहब की बन्दकगी की और साहब ने जैसा कहा वैसा ही किया। श्रीवास्त्व जी स्टे शन पॅहुचे तो लखनऊ की तरफ जाने वाली गाडी आयी और वे उसी गाडी पर बिना टिकट लिए चढ गये । जब टी–टी बोला कि टिकट क्योंा नहीं लिए मालूम नही है कि बिना टिकट यात्रा करना गुनाह है तो श्रीवास्त व जी ने कहा कि मेरे गुरूजी ने टिकट लेने से मना किया था टी-टी भडक गया और बोला चलो अभी लखनऊ पहॅुचकर तुम्हा री और तुम्हा रे गुरू की दोनो की खबर लेते है, जो तुम्हे बिना टिकट गाडी पर बैठा दिया। श्रीवास्ततव जी ने कहा साहब आप हमें कोई भी सजा दे दो पर मेरे गुरूजी को कुछ न कहो गाडी जब लखनऊ पहुची तो टी टी ने कहा तुम यहीं बेंच पर बैठो मैं कागज जमा करके आता हॅु भागना मत नही तो ठीक न होगा। अब श्रीवास्त व जी और घबरा गये सोचा अब तो लगता है जेल में मुझे बन्द। करा देगा। वापस आकर टी टी ने श्रीवास्तयव जी से पूछा भूख लगी है तो उन्हो।ने सजल नेत्रों और भारी मन से हॉ मे सिर हिला दिया और मन में सोंचा कि चलों कम से कम कुछ खिला पिलाकर जेल में डालेगा सो कैन्टिन में जाकर दोनो लोगों ने चाय नास्ताि किया और फिर टी टी श्रीवास्ताव जी को अपने घर ले गये। नहाने के लिए कपडे दिये निवृत होकर नहा धो कर दोनो लोग आए और तैयार हुए तब तक टी टी की धर्म पत्नी जी ने खाना लगा दिया । टी टी कहा चलो खाना खालो और मुझे अपनी पुरी कहानी बताओ। श्रीवास्ताव जी ने रोते रोते हुए शुरू से अपनी आप बीती टी टी को सुनाई उसी समय टी टी का लडका भी स्कूोल से घर आ गया टी टी महोदय ने कहा यह मेरा लडका है और मैं भी श्रीवास्त्व हॅू। क्यार तुम अपनी लडकी की शादी मेरे लडके से करोगे। श्रीवास्त व जी टी टी साहब की बात सुनकर अबाक रह गये टी टी साहब ने फिर पूछा कि क्याे मेरा लडका तुम्हाबरी लडकी के योग्यग है क्या तुम्हेक यह रिस्ताल मंजूर है। श्रीवास्ताव जी ने कहा साहब कहॉ आप और कहॉ मैं आप इतने बडे साहब और मेरे पास टिकट तक के पैसे नही हैं मेरे पास तो आपको देने के लिए भी कुछ नही है। टी टी ने कहा कि हमें तुमसे सिर्फ तुम्हा री हॉ सुननी है श्रीवास्तीव जी ने कहा कि साहब मेरे पास आपको और आपके बरातियों को खिलाने पिलाने के लिए भी कुछ नहीं है। मै इतना बडा इन्तकजाम कैसे कर पॉऊगा तब टी टी साहब ने कहॉ सारा इन्तकजाम मैं कर लॅूगा तुम बस मुझे वह एक रूपया दे दो जो तुम्हें तुम्हाीरे गुरू जी ने दिया है श्रीवास्तूव जी ने गुरूजी की कृपा समझ कर टी टी साहब की बात मान ली और वह गुरू जी द्वारा दिया गया एक रूपया टी टी साहब को दे दिया टी टी साहब ने लडकी लडका पछ का सारा इन्तेयजाम खुद किये शादी हो गयी कालान्तटर में उनके लडके भी हो गये पूरा परिवार सुखी से रहने लगा टी टी साहब के घर में और भी सम्पेन्नउता की वृद्धि हो गयी श्रीवास्तेव जी ने पुरवाधाम आकर साहब का धन्यंवाद अदा किया धीरे धीरे पुरवाधाम की कृपा से श्रीवास्ताव जी की गरीबी भी दूर हो गयी श्रीवास्त व जी की लडकी तो भक्त् थी ही टी टी साहब का पूरा घर पूरवाधाम के शिष्य बन गये बाद में श्रीवास्तकव जी की लडकी महन्थिन हो गयी। वे पूर्णमासी और जन्म षप्तामी जैसे पावन पर्व पर पुरवाधाम आती है तथा दरबार में साहब और भक्तों की सेवा करती है।
No comments:
Post a Comment