कीरति समर्थ साहब सहॉय दास जी (श्री पुरवाधाम)
एक बार समर्थ साहब सहॉय दास जी पुरवाधाम से कोटवाधाम दर्शनार्थ जा रहे थे। उस समय नैपुरा घाट पर गोमती नदी पर पुल नही बना था। नदी को पार करने को एक ही साधन था और वह थी लकडी की नौका। सावन भादों का महीना था बारिश भी हो रही थी। अत: उस दिन नौका वाला भी जल्दीी घर चला गया था। साहब जब गोमती नदी के किनारे पहॅुचे तो देखा कि नाव वाला नाव के सामने किनारे बॉधकर चला गया है तो साहेब के साथ में जो सेवादार (खिदमतगार) था उसने कहा कि साहब अब तो उस पार जाना संभव न होगा अत: इस पार गांव में किसी के यहॉ आज रात रूक जाते है कल जब नाव वाला आएगा तो उस पार चला जाएगा। समर्थ साहब सहॉय दास जी ने कहा कि कोटवाधाम के लिए निकले हैं तो वही पहॅुचकर विश्राम करेंगें तब सेवादारने कहा कि सरकार इस उफनती नदी को पार कैसे करेंगे। साहब ने कहा यही पर पानी कुछ कम है मैं आगे आगे चलता हॅू तुम मेरे पीछे पीछे आना और जहॉ जहॉ हम पैर रखेंगे तुम वहीं रखना बेचारा सेवादा डर गया और बोला साहब इतनी बडी नदी अथाह जल बह रहा है कही हम इसमें पैर रखते ही उसकी बात अभी पूरी भी नहीं हो पाई थी कि साहब ने उसे चुप करा दिया और बोले चिन्ताा मत करो मॉ गोमती हमें अवश्यह ही पार करा देंगी जगजीवन साहब पर भरोसा रखों। सेवादार ने सामान लिया और साहब के पीछे पीछे चलने लगा। सेवादार यह देखकर हैरान था कि पानी तो घुटने तक ही आ रहा था। किनारे पहॅुचने ही वाले थे कि तभी सेवादार अपना पैर दूसरी जगह रखा तो वह तुरन्त अथाह जल में डूबने लगा चिल्लावया समर्थ साहब ने फौरन उसके बाल पकडकर ऊपर खींच लिया और उसे डॉटकर बोले हमने तुमसे कहा था न कि जहॉ मैं पैर रखू तुम वही पर पैर रखना सेवादार ने कहा कि सरकार मैने सोचा कि जहॉ आप पैर रखते वहॉ कम पानी है तो मैने सोचा कि देखू शायद बगल में भी पानी कम ही हो साहब ने कहा तुम तुम्हा री इसी सोच की वजह से डूब रहे थे अगर मनमें एसी भावना होती कि जहॉ साहब पैर रख रहे हैं वहा पर अपने पैर कैसे रखू और तुम कहीं भी पैर रखते तो तुम डूबते नहीं बाहर निकलकर सेवादार साहब के चरण पकडकर अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी और साहब के साथ कोटवाधाम के लिए चल दिये।
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