समर्थ साहब गुरूदत्तव दास साहब की।
समर्थ साहब गरूदत्ते दास साहब को जब पुरवाधाम के महन्थअ के रूप में तिलक हुआ तो कुछ ठाकुरों ने इस बात का विरोध किया और अपना पक्ष रखते हुए कहा कि हम भी समर्थ साहब देवीदास के बंशज हैं अत: मुझे पुरवाधाम का महन्थि बनाया जाया अब चूकि समर्थ साहब देवीदास जी से बडे परिवार का वरदान प्राप्तु किया था अत: उनके परिवार से पूरा गांव ही बस गया तो महन्था पद के कई दावेदार हो गये परिणाम स्व:रूप आए दिन लडाई मचमच करते रहते थे समर्थ साहब गुरूदत्तद दास साहब को परेशान करने का कोई भी मौका नही छोडते। अन्तमत: समर्थ साहब गुरूदत्तक दास साहबने कोटवाधाम धाम जाकर वहॉ के साहब से अपनी परेशानी कही कोटवाधिराज तो सब जानते थे, अत: उन्होाने पुरवाधाम के दूसरे सभी महन्थव पद की ललसा रखने वाले दावेदारों को कोटवाधाम बुलाया, और एक बहुत बडी तलवार लेकर सबके सामने आए और उसी तलवार से अपने चारों तरफ घुमाने लगे और कहा कि तुममे से जो भी पुरवधाम का महन्थ बनना चाहता है वह घेरे में आ जाए, अब भला किसकी मजाल जो चलती तलवार का सामना करे घेरे के अन्देर जाए सबके पसीने छूट गये किसी की हिम्मात नही हुई की घेरे में प्रवेश करे लेकिन तभी समर्थ साहब गुरूदत्त दास साहब हाथ जोडकर घेरे में कूद गये और साहब कोटवाधिराज के चरण पकड लिए, कोटवाधीश ने तलवार फेंक कर समर्थ साहब गुरूदत्ता दास साहब को उठाकर सीने से लगा लिए और कहा जियो मेरे शेर और बाकी सब लोंगों से कहा तुम लोग मरने से डर रहे थे और ख्वाकब देखते हो महन्थ बनने का अरे सन्तु तो जीवन मरण के भय से मुक्तर होता है तुम लोग पुरवाधाम का महन्थ बनने के लायक ही नहीं हो अपने अपने घर जाओ। उसी समय समर्थ साहब गुरूदत्तव दास साहब ने एक बहुत ही भक्ति भाव पूर्ण भजन लिखा और कोटवधीश को गाकर सुनया, जो इस तरह है :’
सतुरू हमका सिंह बनावा।।
दे उपदेश अंदेश मिटाइन, अनहद अलख लखाया ।।
और दूसरे दिन कोटवाधाम से विदा लेकर पुरवाधाम चले आए
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