समर्थसाहब देवीदास जी समर्थ स्वामी जगजीवन साहब से मन्त्र दीक्षा ग्रहण करने के बाद कोटवाधाम मे रहकर सतगुरु जगजीवन साहब की सेवा करने लगे,कुछ समय बीतने पर एक दिन स्वामीजी ने कहा कि देवीदास अब तुम अपने घर लछमन गढ़ जाओ और वहीं रहकर नाम साधना करो।समर्थसद्गुरु की आज्ञानुसार देवीदास जी लछमन गढ़ आगये, और नाम सुमिरन तथा ध्यान योग करने लगे
"निशि वासर कुछ पिया न खावा
देवी दास अस मंत्र जगावा "
,एक बार तो देवीदास जी ध्यान साधना में इतने तल्लीन हो गए कि कई दिनों तक आसन ही नहीं छोड़ा यहां तक कि स्वांस क्रिया भी स्थिर कर लिया, खाने पीने की बात तो दूर स्थान से हिले डुले भी नहीं ऐसी स्थिति में घर वाले चिंतित हो कर कोटवाधाम जाकर स्वामी जी से देवीदासजी की स्थिति बताई तो स्वामी जी ने कहा कि आप लोग परेशान न हो,और अभरन कुंड से जल मंगाकर देते हुए कहा कि वापस घर जाकर इसमें से थोड़ा जल उनके ऊपर छिड़क देना और जब वे चेतनावस्था में आजावें तो बाकी बचे हुए जल का सर्बत यह कह कर पिला देना कि कोटवाधाम से स्वामीजी जी ने आपके लिए भेजा है, घर वालों ने वैसा ही किया जिसके परिणामस्वरूप देवीदासजी सामान्य अवस्था में आगये,परन्तु देवीदासजी ने अपने मन में विचार किया कियहां गांव में रहकर साधना करना कठिन है अतः देवीदासजी ने नरदा ताल के निकट{यह वहीस्थान (नारदीय झील )था जहाँ युगों पहले देवर्षि नारद जी ने तपस्या किया था}जो अब नरदा ताल के नाम से जाना जाता है वहीँ पर अपनी तपोस्थली बनाने का विचार कर वहाँ आ गए और लोगों की मदद से आश्रम बनवाने लगे,उसजगह पर पहले से ही एक सैय्यद(जिन्न जाति)कानिवास था अतः दिन में जितना आश्रम का निर्माण कार्य होता रात्रि में वह सैय्यद आकर सब नष्ट कर देता, जब देवीदासजी को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने रात्रि में वहीं अपना आसन लगाकर बैठ गए और जब वह दुरात्मा सैय्यद आश्रम उजाडऩे आया तो साहब देवीदासजी उससे आश्रम नष्ट करने का कारण पूछा तो उसने कहा कि यहाँ इस जंगल में हमारा साम्राज्य है मैं यहां किसी अन्य को रहने नहीं दूँगा तब साहब ने कहा कि अब तो मैं यहां आश्रम बनाकर ईश्वर की आराधना करूंगा, अब इस जंगल में मंगल ही होगा अतः आप अपना ठिकाना कहीं और बनालें क्योंकि यहां पर हम दोनों में से एक को तो यह स्थान छ़ोडकर जाना ही पड़ेगा और मैं तो जाऊंगा नहीं अतः आप कहीं अन्यत्र जाकर रहें काफी बहस और कोशिश के बाद भी जब देवीदासजी पर उसका जोर नहीं चला तो सैय्यद ने कहा कि तो फिर आप ही बतायें कि मैं कहाँ जाकर रहूं? तब साहब ने वहां से थोड़ी दूर पर स्थित एक पीपल के पेड़ पर उसे यह कहकर रहने की इजाजत दी कि यहां पर भक्तों का आना जाना रहेगा और तुम उन्हें कतई हैरान परेशान नहीं करोगे।ऐसी जनश्रुति है और वह सैय्यद देवीदासजी से बहुत प्रभावित हुआ और भेष बदल कर साहब के दर्शन करने और सत्संग भजन सुनने के लिए भी आता था।कालांतर में समर्थसाहब देवीदासजी के भजन एवं तप से वह स्थान बहुत ही मनोरम हो गया हजारों लोग साहब के दर्शनार्थ आने लगे जो आज पुरवाधाम से प्रसिद्ध है, जनश्रुति यह भी है कि समर्थसाहब देवीदासजी के समाधिस्थ होने के बाद भी वह सैय्यद रात्रि में देवीदास साहब की समाधि के दर्शन और परिक्रमा करने आते हैं।
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